mahatma gandhi : a human can do the mistakes, महात्मा गाँधी : देवता भी गलती कर सकते हैं

      


ये नीचे  लिखे कुछ लेख श्री विश्वजीत सिंह  जी के ब्लॉग में से लिए हैं, 
http://www.vishwajeetsingh1008.blogspot.com/
ये निम्न विषय पर हैं : 
1. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति गांधी जी का द्वेषपूर्ण व्यवहार
2. इरविन - गांधी समझौता और भगतसिंह की फाँसी भाग - एक , दो
3. क्रान्तिकारी सुखदेव का गांधी जी के नाम खुला पत्र
4. गांधी जी नेहरू की दृष्टि

इस ब्लॉग का उद्देश्य गाँधी जी की बुराई करना नहीं, यह बताना है कि गलतियाँ , किसी से भी जाने -अनजाने हो सकती है .  और एक व्यक्ति के अंध भक्त बन कर हम सब और से आँखे न मूंद  लें . 
गाँधी जी में भी अच्छाई , बुराई दोनों थी, गोडसे में भी . दोनों देश भक्त थे , 
और इस विवाद का तो अंत ही नहीं है . 

सोमवार, ४ जुलाई २०११

गांधी जी नेहरू की दृष्टि में

गांधी जी के सर्वाधिक प्रिय व खण्डित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा - " ओह दैट आफुल ओल्ड हिपोक्रेट " Oh, that awful old hypocrite - ओह ! वह ( गांधी ) भयंकर ढोंगी बुड्ढा । यह पढकर आप चकित होगे कि क्या यह कथन सत्य है - गांधी जी के अनन्य अनुयायी व दाहिना हाथ माने जाने वाले जवाहर लाल नेहरू ने ऐसा कहा होगा , कदापि नहीं । किन्तु यह मध्याह्न के सूर्य की भाँति देदीप्यमान सत्य है - नेहरू ने ऐसा ही कहा था । प्रसंग लीजिये - सन 1955 में कनाडा के प्रधानमंत्री लेस्टर पीयरसन भारत आये थे । भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ उनकी भेंट हुई थी । भेंट की चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक " द इन्टरनेशनल हेयर्स " में की है -
सन 1955 में दिल्ली यात्रा के दौरान मुझे नेहरू को ठीक - ठीक समझने का अवसर मिला था । मुझे वह रात याद है , जब गार्डन पार्टी में हम दोनों साथ बैठे थे , रात के सात बज रहे थे और चाँदनी छिटकी हुई थी । उस पार्टी में नाच गाने का कार्यक्रम था । नाच शुरू होने से पहले नृत्यकार दौडकर आये और उन्होंने नेहरू के पाँव छुए फिर हम बाते करने लगे । उन्होंने गांधी के बारे में चर्चा की , उसे सुनकर मैं स्तब्ध हो गया । उन्होंने बताया कि गांधी कैसे कुशल एक्टर थे ? उन्होंने अंग्रेजों को अपने व्यवहार में कैसी चालाकी दिखाई ? अपने इर्द - गिर्द ऐसा घेरा बुना , जो अंग्रेजों को अपील करे । गांधी के बारे में मेरे सवाल के जबाब में उन्होंने कहा - Oh, that awful old hypocrite । नेहरू के कथन का अभिप्राय हुआ - " ओह ! वह भयंकर ढोंगी बुड्ढा " ।
( ग्रन्थ विकास , 37 - राजापार्क , आदर्शनगर , जयपुर द्वारा प्रकाशित सूर्यनारायण चौधरी की ' राजनीति के अधखुले गवाक्ष ' पुस्तक से उदधृत अंश )
नेहरू द्वारा गांधी के प्रति व्यक्त इस कथन से आप क्या समझते है - नेहरू ने गांधी को बहुत निकट एवं गहराई से देखा था । वह भी उनके विरोधी होकर नहीं अपितु कट्टर अनुयायी होकर । फिर क्या कारण रहा कि वे गांधी जी के बारे में अपने उन दमित निश्कर्षो को स्वार्थवश या जनभयवश अपने देशवासियों के सामने प्रकट न कर सके , एक विदेशी प्रधानमंत्री के सामने प्रकट कर दिया ?
- विश्वजीतसिंह

रविवार, ३ जुलाई २०११

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति गांधी जी का द्वेषपूर्ण व्यवहार

सन 1938 में सुभाष को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया । इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए । सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर अखण्ड भारत की आजादी की लडाई को ओर तेज किया जाये , यह भारत की आजादी के लिए स्वर्णिम अवसर हैं । कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुये उन्होंने इस दिशा में कार्य शुरू कर दिया । सुभाष गांधी जी के तथाकथित अहिंसा आन्दोलन के द्वारा भारत को आजादी दिलाने की खोखली नीति पर कभी विश्वास नहीं करते थे । इसी कारण गांधी - नेहरू की कांग्रेस ने द्वेषवश कभी नेताजी सुभाष का साथ नहीं दिया ।
भारत की आजादी में एक महत्वपूर्ण पहलू द्वितीय विश्वयुद्ध भी हैं । इस युद्ध में ब्रिटेन सहित पूरा यूरोप बर्बाद हो गया था । अब उनमें भारत की आजादी के आन्दोलन को झेलने की शक्ति नहीं बची थी । अगर अंग्रेज द्वितीय विश्वयुद्ध में इतनी बुरी तरह बर्बाद नहीं होते और भारत में सशस्त्र क्रान्तिकारी न होते तो शायद गांधी जी का स्वतन्त्रता आन्दोलन अभी तक चल रहा होता ।
1939 में जब कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनने का समय आया तो सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये , जो अखण्ड भारत की पूर्ण आजादी के विषय पर किसी के सामने न झुके । ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं अध्यक्ष पद पर बने रहना चाहा । लेकिन गांधी जी अपने सामने किसी प्रतिद्वंदी को स्वीकार न कर पाते थे और वह उन्हें अपने रास्ते से हटाने का पूर्ण प्रयास किया करते थे , वह प्रतिदंदी नेताजी सुभाष रहे हो चाहे भगतसिंह । सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी जी की नीतियों पर नहीं चले , अतः गांधी व उनके साथी सुभाष को अपने रास्ते से हटाना चाहते थे । गांधी ने सुभाष के विरूद्ध पट्टाभी सीतारमैय्या को चुनाव लडाया । लेकिन उस समय गांधी से कही ज्यादा लोग सुभाष को चाहते थे । कवि रविन्द्रनाथ टैगोर ने गांधी जी को पत्र लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया । प्रफुल्ल चन्द्र रॉय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को फिर से अध्यक्ष देखना चाहते थे । लेकिन गांधी जी ने इस विषय पर किसी की नहीं मानी । कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षो बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ ।
गांधी जी के प्रबल विरोध के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस भारी बहुमत से चुनाव जीतकर दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिये गये । गांधी जी को दुःख हुआ , उन्होंने कहा कि ' सुभाष की जीत गांधी की हार हैं । ' सत्य के प्रयोग करने वाले गांधी जी शान्त नहीं रहें , बल्कि उन्होंने नेताजी सुभाष के प्रति विद्वेष का व्यवहार अपनाया । उनके कार्यो में बाधाएँ डालते रहे और अन्त में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र लिखवाकर ही दम लिया ।
जिस समय आजाद हिन्द फौज नेताजी सुभाष के नेतृत्व में जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिस सेना के विरूद्ध मोर्चे पर मोर्चा मारती हुई भारत की भूमि की ओर बढती आ रही थी , उस समय गांधी जी ने , जिनके हाथ में करोडों भारतीयों की नब्ज थी और जिससे आजाद हिन्द फौज को काफी मदद मिल सकती थी , ऐसा कुछ नहीं किया । बल्कि 24 अप्रैल 1945 को जब भारत आजाद हिन्द फौज और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रयासों से आजादी के करीब था , तब गांधी जी के सर्वाधिक प्रिय जवाहर लाल नेहरू ने गुवाहाटी की एक सभा में कहा कि - ' यदि सुभाष चन्द्र बोस ने जापान की सहायता से भारत पर आक्रमण किया तो मैं स्वयं तलवार उठाकर सुभाष से लडकर रोकने जाऊँगा । ' नेहरू का यह व्यवहार महात्मा नाथूराम गोडसे के उस कथन की याद दिलाते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि ' गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे । '
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का स्वप्न था स्वाधीन , शक्तिशाली और समृद्ध भारत । वे भारत को अखण्ड राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे । लेकिन गांधी - नेहरू की विभाजनकारी साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की नीतियों ने भारत का विभाजन करते उनके स्वप्न की हत्या कर दी । यदि कांग्रेस नेताजी सुभाष की चेतावनी पर समय रहते ध्यान देती और गांधीवाद के पाखण्ड में ना फंसी होती तो भारत विभाजन न होता तथा मानवता के माथे पर भयानक रक्त - पात का कलंक लगने से बच जाता । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि " आजादी का मतलब सिर्फ राजनीतिक गुलामी से छुटकारा ही नहीं हैं । देश की सम्पत्ति का समान बटवारा , जात - पात के बंधनों और सामाजिक ऊँच - नीच से मुक्ति तथा साम्प्रदायिकता और धर्मांधता को जड से उखाड फेंकना ही सच्ची आजादी होगी । "
जय हिन्द
- विश्वजीतसिंह

क्रान्तिकारी सुखदेव का गांधी जी के नाम खुला पत्र

अत्यन्त सम्मानीय महात्मा जी आजकल के नए समाचारों से ज्ञात होता है कि आपने समझौते की परिचर्चा के बाद से क्रान्तिकारियों के नाम कई अपीलें निकाली है, जिनमें आपने उनसे कम से कम वर्तमान के लिए अपने क्रान्तिकारी आंदोलन रोक देने के लिए कहा है। वस्तुतः किसी आन्दोलन को रोक देने का काम कोई सिद्धांतिक या अपने वश की बात नहीं है, यह भिन्न - भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार कर आन्दोलन के नेता अपना और अपनी नीति का परिवर्तन किया करते है। मेरा अनुमान है कि संधि के वार्तालाप के समय आप एक क्षण के लिए भी यह बात न भूले होगे कि यह समझौता कोई आखिरी समझौता नहीं हो सकता। मेरे विचार से इतना तो सभी समझदार व्यक्तियों ने समझ लिया होगा कि आपके सब सुधारो के मान लिए जाने पर भी देश का अंतिम लक्ष्य पूरा न हो पायेगा। कांग्रेस लाहौर घोषणानुसार स्वतंत्रता का युद्ध तब तक जारी रखने के लिए बाध्य है जब तक पूर्ण स्वाधीनता ना प्राप्त हो जाये। बीच की संधियाँ और समझौते विराम मात्र है, उपरोक्त सिद्धांत पर ही किसी प्रकार का समझौता या विराम संधि की कल्पना की जा सकती है। समझौते के लिए उपयुक्त अवसर का तथा शर्तो का विचार करना नेताओं का काम है। लाहौर के पूर्ण स्वतंत्रता वाले प्रस्ताव के होते हुए भी आपने अपना आंदोलन स्थगित कर देना उचित समझा तो भी वह प्रस्ताव ज्यो का त्यो बना है।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में समाजसत्ता प्रजातंत्र प्रणाली स्थापित करना है। इस ध्येय के मध्य में संशोधन की जरा भी गुजांईश नहीं है, वे तो जब तक अपना ध्येय व लक्ष्य पूर्ण नहीं हो जाता तब तक लडाई जारी रखने के लिए बाध्य है। परन्तु वे परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ अपनी युद्ध नीति बदलने के लिए तैयार अवश्य होगे। क्रांतिकारियों का युद्ध विभिन्न अवसरों पर भिन्न - भिन्न स्वरूप धारण कर लेता है । कभी वह प्रकट रूप तो कभी गुप्त रूप धारण कर लेता है, कभी केवल आंदोलन के रूप में होता है तो कभी जीवन - मृत्यु का भयानक संग्राम बन जाता है। ऐसी परिस्थितियों में क्रांतिकारियों के सामने अपना आंदोलन रोक देने के लिए कुछ विशेष कारणों का होना तो आवश्यक ही है। परन्तु आपने हम लोगो के सामने ऐसा कोई निश्चित कारण प्रकट नहीं किया जिस पर विचार कर हम अपना आंदोलन रोक दे। केवल भावुक अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्व नहीं होता। समझौता करने के कारण आपने अपना आंदोलन स्थगित कर दिया है जिसके फलस्वरूप आपके सब कैदी छूट गए है, पर क्रान्तिकारी कैदियों के बारे में आप क्या कहते हो ? सन 1915 के गदर पक्ष वाले कैदी अब भी जेलों में सड रहे है, यद्यपि उनकी सजाऐं पूरी हो चुकी है। लोदियों मार्शल ला के कैदी जीवित ही कब्रो में गडे हुए है, इसी प्रकार दर्जनों बब्बर अकाली कैदी जेल में यातना पा रहे है। देवगढ, काकोरी, महुआ बाजार और लाहौर षडयन्त्र केस, दिल्ली, चटगॉव, बम्बई, कलकत्ता आदि स्थानों में चल रहे दर्जनों क्रांतिकारी फरार है, जिनमें बहुत सी तो स्त्रियाँ है। आधा दर्जन से अधिक कैदी अपनी फाँसी की बाट जोह रहे है। इस सबके विषय में आप क्या कहते है ? लाहौर षडयन्त्र के हम तीन राजबंदी जिन्हें फाँसी का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश बहुत बडी ख्याति प्राप्त कर ली है, क्रांतिकारी दल के सब कुछ नहीं है। दल के सामने केवल इन्ही के भाग्य का प्रश्न नहीं है। वास्तव में इनकी सजाओं के बदल देने से देश का उतना लाभ न होगा, जितना कि इन्हें फाँसी पर चढा देने से होगा।
परंतु इन सब बातों के होते हुए भी आप इनसे अपना आंदोलन खींच लेने की सार्वजनिक अपील कर रहे है। वे ऐसा क्यों करे ? इसका कोई निश्चित कारण नहीं बतलाया। ऐसी स्थिति में आपकी इन अपीलों के निकालने का अर्थ तो यही है कि आप क्रांतिकारियों के आंदोलन को कुचलने में नौकरशाही का साथ दे रहे हो। इन अपीलों के द्वारा आप क्रांतिकारी दल में विश्वासघात और फूट की शिक्षा दे रहे हो। अगर ऐसी बात नहीं होती तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ प्रमुख क्रान्तिकारियों के पास जाकर इस विषय की सम्पूर्ण बातचीत कर लेते। आपको उन्हें आंदोलन खींच लेने का परामर्श देने से पहले अपने तर्को से समझाने का प्रयास करना चाहिए था। मैं नहीं मानता कि आप भी प्रचलित पुरानी धारणा में रखते है कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते है और उन्हें केवल विनाशकारी कार्यो में ही आनन्द आता है। मैं आपको बता देना चाहता हूँ कि यर्थात में बात इसके बिल्कुल विपरित है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले अपने चारो तरफ की परिस्थितियों का सूक्ष्म विचार कर लेते है। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का एहसास हर समय बना रहता है। वे अपने क्रांति के कार्य में दूसरे अंश की अपेक्षा रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते है । यद्यपि उपस्थित परिस्थितियों में उन्हें केवल विनाशात्मक अंश की ओर ध्यान देना पडा है।
सरकार क्रांतिकारियों के प्रति पैदा हो गयी सार्वजनिक सहानुभूति तथा सहायता को नष्ट करके किसी भी तरह से उन्हें कुचल डालना चाहती है। अकेले में वे सहज ही कुचल दिए जा सकते है। ऐसी हालत में उनके दल में बुद्धि - भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावुक अपील निकाल कर उनमें विश्वासघात और फूट पैदा करना बहुत ही अनुचित और क्रान्ति विरोधी कार्य होगा इसके द्वारा सरकार को उन्हें कुचलने में प्रत्यक्ष सहायता मिलेगी। इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते है कि या तो आप कुछ क्रांतिकारी नेताओं से जो कि जेलों में है, इस विषय में बातचीत कर निर्णय कर लीजिये या फिर अपनी अपील बंद कर दीजिये। कृपा करके उपरोक्त दो मार्गो में से किसी एक का अनुसरण कीजिये। अगर आप उनकी सहायता नहीं कर सकते तो कृपा करके उन पर दया कीजिये और उन्हें अकेला छोड दीजिये वे अपनी रक्षा आप कर लेगे। वे अच्छी तरह जानते है कि भविष्य के राजनीतिक युद्ध में उनका नायकत्व निश्चित है ।
क्रमश ......

बृहस्पतिवार, २३ जून २०११

मृत्यु पत्र - अमर बलिदानी वीर नाथूराम गोडसे

प्रिय बन्धो चि. दत्तात्रय वि. गोडसे
मेरे बीमा के रूपिया आ जायेंगे तो उस रूपिया का विनियोग अपने परिवार के लिए करना । रूपिया 2000 आपके पत्नी के नाम पर , रूपिया 3000 चि. गोपाल की धर्मपत्नी के नाम पर और रूपिया 2000 आपके नाम पर । इस तरह से बीमा के कागजों पर मैंने रूपिया मेरी मृत्यु के बाद मिलने के लिए लिखा है ।
मेरी उत्तरक्रिया करने का अधिकार अगर आपकों मिलेगा तो आप अपनी इच्छा से किसी तरह से भी उस कार्य को सम्पन्न करना । लेकिन मेरी एक ही विशेष इच्छा यही लिखता हूँ ।
अपने भारतवर्ष की सीमा रेखा सिंधु नदी है जिसके किनारों पर वेदों की रचना प्राचीन द्रष्टाओं ने की है ।
वह सिंधुनदी जिस शुभ दिन में फिर भारतवर्ष के ध्वज की छाया में स्वच्छंदता से बहती रहेगी उन दिनों में मेरी अस्थि या रक्षा का कुछ छोटा सा हिस्सा उस सिंधु नदी में बहा दिया जाएँ ।
मेरी यह इच्छा सत्यसृष्टि में आने के लिए शायद ओर भी एक दो पीढियों ( Generations ) का समय लग जाय तो भी चिन्ता नहीं । उस दिन तक वह अवशेष वैसे ही रखो । और आपके जीवन में वह शुभ दिन न आया तो आपके वारिशों को ये मेरी अन्तिम इच्छा बतलाते जाना । अगर मेरा न्यायालीन वक्तव्य को सरकार कभी बन्धमुक्त करेगी तो उसके प्रकाशन का अधिकार भी मैं आपको दे रहा हूँ ।
मैंने 101 रूपिया आपकों आज दिये है जो आप सौराष्ट्र सोमनाथ मन्दिर पुनरोद्धार हो रहा है उसके कलश के कार्य के लिए भेज देना ।
वास्तव में मेरे जीवन का अन्त उसी समय हो गया था जब मैंने गांधी पर गोली चलायी थी । उसके पश्चात मानो मैं समाधि में हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ । मैं मानता हूँ कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाएँ , जिसके लिए मैं उनकी सेवा के प्रति और उनके प्रति नतमस्तक हूँ , किन्तु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि का विभाजन करने का अधिकार नहीं था ।
मैं किसी प्रकार की दया नहीं चाहता और नहीं चाहता हूँ कि मेरी ओर से कोई दया की याचना करें । अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना अगर पाप है तो मैं स्वीकार करता हूँ कि वह पाप मैंने किया है । अगर वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है की मनुष्यों के द्वारा स्थापित न्यायालय से ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमें मेरे कार्य को अपराध नहीं समझा जायेगा । मैंने देश और जाति की भलाई के लिए यह कार्य किया है । मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियों के कारण हिन्दुओं पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए । मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ' नीति की दृष्टि ' से पूर्णतया उचित है । मुझे इस बात में लेशमात्र भी सन्देह नहीं की भविष्य में किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो वे मेरे कार्य को उचित ठहराएंगे ।
कुरूक्षेत्र और पानीपत की पावन भूमि से चलकर आने वाली हवा में अन्तिम श्वास लेता हूँ । पंजाब गुरू गोविंद की कर्मभूमि है । भगत सिंह , राजगुरू और सुखदेव यहाँ बलिदान हुए । लाला हरदयाल तथा भाई परमानंद इन त्यागमूर्तियों को इसी प्रांत ने जन्म दिया ।
उसी पंजाब की पवित्र भूमि पर मैं अपना शरीर रखता हूँ । मुझे इस बात का संतोष है । खण्डित भारत का अखण्ड भारत होगा उसी दिन खण्डित पंजाब का भी पहले जैसा पूर्ण पंजाब होगा । यह शीघ्र हो यही अंतिम इच्छा !

आपका
नाथूराम वि. गोडसे
14 - 11 - 49

बुधवार, २२ जून २०११

अंबाला जेल की कालकोठरी से अमर बलिदानी वीर नाथूराम गोडसे का अपने माता - पिता के नाम अन्तिम पत्र

परम् वंदनीय माताजी और पिताजी ,
अत्यन्त विनम्रता से अंतिम प्रणाम ।
आपके आशीर्वाद विद्युतसंदेश से मिल गये । आपने आज की आपकी प्रकृति और वृद्धावस्था की स्थिति में यहाँ तक न आने की मेरी विनती मान ली , इससे मुझे बडा संतोष हुआ है । आप के छायाचित्र मेरे पास है और उसका पूजन करके ही मैं ब्रह्म में विलीन हो जाऊँगा ।
लौकिक और व्यवहार के कारण आप को इस घटना से परम दुःख होगा इसमें कोई शक नहीं । लेकिन मैं ये पत्र कोई दुःख के आवेग से या दुःख की चर्चा के कारण नहीं लिख रहा हूँ ।
आप गीता के पाठक है , आपने पुराणों का अध्ययन भी किया है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया है और वही भगवान ने राजसूय यज्ञभूमि पर -युद्धभूमि पर नहीं - शिशुपाल जैसे एक आर्य राजा का वध अपने सुदर्शन चक्र से किया है । कौन कह सकता है कि श्रीकृष्ण ने पाप किया है । श्रीकृष्ण ने युद्ध में और दूसरी तरह से भी अनेक अहंमन्य और प्रतिष्ठित लोगों की हत्या विश्व के कल्याण के लिए की है । और गीता उपदेश में अपने ( अधर्मी ) बान्धवों की हत्या करने के लिए बार - बार कह कर अन्त में ( युद्ध में ) प्रवृत्त किया है ।
पाप और पुण्य मनुष्य के कृत्य में नहीं , मनुष्य के मन में होता है । दुष्टों को दान देना पुण्य नहीं समझा जाता । वह अधर्म है । एक सीता देवी के कारण रामायण की कथा बन गयी , एक द्रोपदी के कारण महाभारत का इतिहास निर्माण हुआ ।
सहस्त्रावधी स्त्रियों का शील लुटा जा रहा था और ऐसा करने वाले राक्षसों को हर तरह से सहायता करने के यत्न हो रहे थे । ऐसी अवस्था में अपने प्राण के भय से या जन निन्दा के डर से कुछ भी न करना मुझसे नहीं हुआ । सहस्त्रावधी रमणियों के आशिर्वाद भी मेरे पीछे है ।
मेरे बलिदान मेरे प्रिय मातृभूमि के चरणों पर है । अपना एक कुटुम्ब या और कुछ कुटुम्बियों के दृष्टि से हानि अवश्य हो गयी । लेकिन मेरे दृष्टि के सामने छिन्न - भिन्न मन्दिर , कटे हुए मस्तकों की राशि , बालकों की क्रुर हत्या , रमणीयों की विडंबना हर घडी देखने में आती थी । आततायी और अनाचारी लोगों को मिलने वाला सहाय्य तोडना मैने अपना कर्तव्य समझा ।
मेरा मन शुद्ध है । मेरी भावना अत्यन्त शुद्ध थी । कहने वाले लाख तरह से कहेंगे तो भी एक क्षण के लिए भी मेरा मन अस्वस्थ नहीं हुआ । अगर स्वर्ग होगा तो मेरा स्थान उसमें निश्चित है । उस वास्ते मुझे कोई विशेष प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है ।
अगर मोक्ष होगा तो मोक्ष की मनीषा मैं करता हूँ ।
दया मांगकर अपने जीवन की भीख लेना मुझे जरा भी पसंद नहीं था । और आज की सरकार को मेरा धन्यवाद है कि उन्होंने दया के रूप में मेरा वध नहीं किया । दया की भिक्षा से जिन्दा रहना यही मैं असली मृत्यु समझता था । मृत्यु दंड देने वाले में मुझे मारने की शक्ति नहीं है । मेरा बलिदान मेरी मातृभूमि अत्यन्त प्रेम से स्वीकार करेंगी ।
मृत्यु मेरे सामने आया नहीं । मैं मृत्यु के सामने खडा हो गया हूँ । मैं उनके तरफ सुहास्य वदन से देख रहा हूँ और वह भी मुझे एक मित्र के नाते से हस्तांदोलन करता है ।
जातस्यहि धृवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येथे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
भगवदगीता में तो जीवन और मृत्यु की समस्या का विवेचन श्लोक - श्लोकों में भरा हुआ है । मृत्यु में ज्ञानी मनुष्य को शोक विह्ल करने की शक्ति नहीं है ।
मेरे शरीर का नाश होगा पर मैं आपके साथ हूँ । आसिंधु - सिंधु भारतवर्ष को पूरी तरह से स्वतंत्र करने का मेरा ध्येय - स्वप्न मेरे शरीर की मृत्यु होने से मर जाये यह असम्भव है ।
अधिक लिखने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है । सरकार ने आपको मुझसे मिलने की अंतिम स्वीकृति नहीं दी । सरकार से किसी भी तरह की अपेक्षा नहीं रखते हुए भी वह कहना ही पडेगा कि अपनी सरकार किस तरह से मानवता के तत्व को अपना रही है ।
मेरे मित्र गण और चि. दत्ता , गोविंद , गोपाल आपको कभी भी अंतर नहीं देंगें ।
चि. अप्पा के साथ और बातचीत हो जायेगी । वो आपको सब वृत्त निवेदन करेंगा ।
इस देश में लाखों मनुष्य ऐसे है कि जिनके नेत्र से इस बलिदान से अश्रु बहेंगे । वह लोग आपके दुःख में सहभागी हैं । आप आपको स्वतः को ईश्वर के निष्ठा के बल पर अवश्य संभालेंगे इसमें संदेह नहीं ।
अखण्ड भारत अमर रहे ।
वन्दे मातरम् ।
आपके चरणों को सहस्त्रशः प्रणाम
आपका विनम्र
नाथूराम वि. गोडसे
अंबाला दिनांक 12 - 11 - 49

रविवार, १९ जून २०११

पूर्वजों के प्रति निष्ठा

एक बार प्राख्यात साहित्यकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र इंडोनेशिया की यात्रा पर गए । वहाँ मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया के कला विभाग के निदेशक सुदर्शन के साथ वह कुछ प्राचीन स्थलों का अवलोकन करने निकले । सुदर्शन इस्लाम मतावलम्बी थे । वे दोनों बोरोबुदुर देखने जा रहे थे । रास्ते में कुछ संगतराश पत्थरों पर कुछ अक्षर खोद रहे थे । डॉ. विद्यानिवास मिश्र जी ने जिज्ञासा प्रकट की और पूछा कि पत्थरों पर ये क्या लिख रहे हैं । सुदर्शन ने बताया कि यहाँ के कुछ लोग मरणोपरांत अपनी कब्र पर लगाए जाने वाले पत्थर पर जावाई भाषा में महाभारत या रामायण की कोई पंक्ति खुदवाते हैं । मुस्लिम होते हुए भी वे राम व कृष्ण के प्रति गहरी आस्था रखते हैं ।
डॉ. विद्यानिवास मिश्र को आश्चर्यचकित देख सुदर्शन ने कहा - ' हमने सात सौ वर्ष पहले इस्लाम स्वीकार किया था , लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम अपने पूर्वजों को ही भूल जाएं । रामायण और महाभारत हमारे लिए आज भी प्रेरणादायक हैं । ' डॉ. विद्यानिवास मिश्र उस इंडोनेशियाई मुस्लिम विद्वान का मुहं देखते रह गये ।
जब इंडोनेशिया के मुस्लिम अपने मूलधर्म व पूर्वजों पर गर्व कर सकते है तो भारतीय मुस्लिम अपनी मूल सनातन संस्कृति , हिन्दू धर्म और महापुरूषों पर गर्व क्यों नहीं कर सकते ! ! !
        

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