चित्र केवल कुंची व रंगों से ही नहीं बनते, शब्दों से भी बनते हैं.
मुझे यह शेर बहुत अच्छा लगता है,
इसके बारे में बहुत कुछ कहा जाता है , कि किसने लिखा, और वास्तविक शब्द संयोजन क्या है.
पर कैसे भी कहो , अर्थ बहुत ही खूबसूरत है . शेर है :
लाम से गेसू हैं मेरे घनश्याम के
काफ़िर हैं वो जो आशिक नहीं इस-लाम के
इस शेर का मजा लाम शब्द के दो उपयोगों में है , जैसा कि नीचे बताया है :-
उर्दू में “लाम” अक्षर (यानि हिन्दी का “ल”) ل के आकार का होता है। भगवान कृष्ण के गेसू (बाल) भी इसी आकार में मुड़ कर घुंघराले दिखते हैं। ताज बीबी ने “इस्लाम” की जगह “इस लाम” का प्रयोग करके सारा अर्थ ही बदल दिया!
* उर्दू में लाम ل के आकार का होता है कृष्ण के बाल** भी इसी तरह मुड़े हुए थे.
Saras Darbari
किस्सा कुछ यूँ है...
एक मशहूर हिन्दू शायर"चकबस्त" को एक महफ़िल में शरीक होने के लिए न्योता दिया गया. वहां पहुंचकर उन्हें काफिये से काफिया मिलकर शेर पढना था...और काफिया था"वह सभी काफ़िर हैं जो बन्दे नहीं, इस्लाम के"...वहां वे अकेले हिन्दू थे ...उन्होंने कुछ पल सोचा और बोले "की लाम की मांनिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के (लाम याने हुक के शेप के) तो...
लाम की मानिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के ..
और वह सभी 'काफ़िर'हैं , जो बन्दे नहीं 'इस लाम' के...
उनकी हाज़िर जवाबी से सब सकते मैं आ गए ...और चकबस्त जी अपने इस शेर से मशहूर हो गए !
एक मशहूर हिन्दू शायर"चकबस्त" को एक महफ़िल में शरीक होने के लिए न्योता दिया गया. वहां पहुंचकर उन्हें काफिये से काफिया मिलकर शेर पढना था...और काफिया था"वह सभी काफ़िर हैं जो बन्दे नहीं, इस्लाम के"...वहां वे अकेले हिन्दू थे ...उन्होंने कुछ पल सोचा और बोले "की लाम की मांनिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के (लाम याने हुक के शेप के) तो...
लाम की मानिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के ..
और वह सभी 'काफ़िर'हैं , जो बन्दे नहीं 'इस लाम' के...
उनकी हाज़िर जवाबी से सब सकते मैं आ गए ...और चकबस्त जी अपने इस शेर से मशहूर हो गए !
Kavita Kosh @Saras Darbari... यह बात सही है कि इस शे’र को एक तरही मुशायरे में रचा गया था... लेकिन यह शे’र ताज बीबी का रचा हुआ माना जाता है... कुछ जगह इसके रचयिता चकबस्त भी माने गए हैं -लेकिन अधिकांश लोग ताज बीबी के नाम पर सहमत हैं
एक आध और भी , और यदि मांग हुई तो कुछ दुमानी शेर भी लिख सकता हूं .
3 comments:
bahut khoob prastuti .aabhar
थैंक्स शिखा जी
आज कल इन शेरों को पसंद करने वाले बहुत नहीं हैं . इसलिए आपको बहुत धन्यवाद. क्या आपने भी राधा कृषण पर कभी लिखा है ! कृपया लिंक भेजें .
अशोक गुप्ता
दिल्ली
जहाँ तक मेरी जानकारी है कि यह शेर चकबस्त जी का ही है. इन्हें पाकिस्तान में एक मुशायरे में न्योता दिया गया था और यह मिसरा दिया गया था ----
है वही काफिर जो न माने इस्लाम को
तो चकबस्त जी ने अपनी हाजिरजवाबी से लिखा था
लाम की मानिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के
है वही काफिर जो न माने इस लाम को.
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