केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई।।
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा।।
राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई।।
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई।।
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा।।
तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू।।
करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी।।
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।।
छं0- तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं।।
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी।।
सो0-गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति।।151।।
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी।।
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी।।
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।।
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई।।
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ।।
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा।।
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई।।
दो0-कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह।।152।।
–*–*–
तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई।।
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती।।
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू।।
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ।।
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू।।
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा।।
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी।।
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा।।
दो0-भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु।।153।।
–*–*–
प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू।।
इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी।।
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना।
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी।।
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू।।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू।।
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू।।
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी।।
दो0–प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि।।154।।
–*–*–
धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू।।
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही।।
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती।।
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई।।
भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा।।
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा।।
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते।।
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।
दो0-राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम।।155।।
–*–*–
जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा।।
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा।।
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी।।
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा।।
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी।।
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू।।
गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं।।
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी।।
दो0-तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास।।156।।
–*–*–
तेल नाँव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा।।
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू।।
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई।।
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए।।
अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें।।
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना।।
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना।।
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई।।
दो0-एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ।।157।।
–*–*–
चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके।।
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई।।
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।।
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।।
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला।।
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा।।
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए।।
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी।।
दो0-पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं।।158।।
–*–*–
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी।।
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि।।
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई।।
भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा।।
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती।।
सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें।।
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई।।
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।
दो0-सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन।।159।।
–*–*–
तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी।।
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा।।
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी।।
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही।।
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी।।
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई।।
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी।।
दो0-भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु।।160।।
–*–*–
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति।।
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू।।
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।।
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू।।
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा।।
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही।।
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।
दो0-हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ।।161।।
–*–*–
जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ।।
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा।।
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही।।
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ।।
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं।।
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही।।
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई।।
दो0-राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि।।162।।
–*–*–
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई।।
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई।।
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई।।
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा।।
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू।।
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा।।
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी।।
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।।
दो0-मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार।।163।।
–*–*–
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई।।
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी।।
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई।।
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा।।
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।।
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी।।
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु।।
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी।।
दो0-मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि।।
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि।।164।।
–*–*–
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए।।
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई।।
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।।
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे।।
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू।।
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि।।
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता।।
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा।।
दो0-पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165।।
–*–*–
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू।।
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी।।
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा।।
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई।।
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए।।
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें।।
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी।।
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना।।
दो0- कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु।।166।।
–*–*–
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई।।
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं।।
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी।।
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें।।
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें।।
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं।।
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता।।
दो0-जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर।।167।।
–*–*–
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं।।
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी।।
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा।।
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा।।
जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे।।
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई।।
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं।।
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ।।
दो0-मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ।।168।।
–*–*–
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे।।
बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी।।
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू।।
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं।।
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए।।
करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गइ सब राती।।
बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे।।
दो0-तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु।।169।।
–*–*–
नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा।।
गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी।।
चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए।।
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई।।
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही।।
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना।।
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा।।
भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना।।
दो0-सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम।।170।।
–*–*–
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी।।
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।
बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई।।
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे।।
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी।।
भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा।।
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ।।
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी।।
दो0-सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।।171।।
–*–*–
अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू।।
तात बिचारु केहि करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं।।
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना।।
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।।
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।।
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।।
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी।।
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई।।
दो0-सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग।।172।।
–*–*–
बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू।।
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी।।
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी।।
सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।।
सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।।
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा।।
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा।।
दो0-कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु।।173।।
–*–*–
सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी।।
यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू।।
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा।।
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी।।
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना।।
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई।।
परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी।।
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ।।
दो0-अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।174।।
–*–*–
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू।।
सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू।।
बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका।।
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी।।
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं।।
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं।।
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि।।
सौंपेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ।।
दो0-कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि।।175।।
–*–*–
कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई।।
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी।।
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू।।
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा।।
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई।।
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू।।
गुर के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु।।
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी।।
छं0-सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए।
लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए।।
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की।।
सो0-भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि।।176।।
मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का।।
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा।।
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।।
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू।।
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई।।
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें।।
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू।।
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू।।
दो0-पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु।।177।।
–*–*–
हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई।।
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं।।
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें।।
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू।।
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा।।
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई।।
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू।।
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू।।
दो0-कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज।।178।।
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कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू।।
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं।।
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू।।
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा।।
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू।।
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू।।
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे।।
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई।।
दो0-कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर।।179।।
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कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे।।
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा।।
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू।।
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू।।
एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका।।
कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं।।
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई।।
दो0-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।।180।।
–*–*–
कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।।
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई।।
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका।।
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही।।
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई।।
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं।।
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू।।
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू।।
दो0-राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि।।181।
–*–*–
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।।
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ।।
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं।।
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी।।
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू।।
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी।।
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा।।
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी।।
दो0-आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ।।182।।
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आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा।।
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं।।
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी।।
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा।।
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी।।
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी।।
दो0-जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस।।183।।
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भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे।।
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।
दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।184।।
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भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।।
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के।।
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई।।
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं।।
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू।।
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।
दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।185।।
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घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना।।
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू।।
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही।।
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई।।
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।।
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले।।
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा।।
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।
दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान।।186।।
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चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी।।
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना।।
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू।।
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे।।
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ।।
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना।।
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना।।
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी।।
दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।187।।
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राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी।।
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।188।।
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सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा।।
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा।।
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।।
दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु।।189।।
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होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा।।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।।
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा।।
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू।।
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी।।
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें।।
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा।।
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू।।
दो0-बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु।।190।।
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बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ।।
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा।।
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी।।
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं।।
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं।।
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े।।
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई।।
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने।।
दो0-भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि।।191।।
–*–*–
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे।।
जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं।।
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा।।
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।
दो0-गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ।।192।।
–*–*–
लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ।।
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे।।
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने।।
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू।।
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा।।
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।।
दो0-करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ।।193।।
–*–*–
भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती।।
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता।।
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।।
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा।।
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।।
दो0-स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात।।194।।
–*–*–
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।।
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं।।
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।।
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।।
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी।।
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।
दो0-समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ।।195।।
–*–*–
कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें।।
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई।।
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं।।
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा।।
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी।।
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू।।
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई।।
दो0-सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ।।196।।
–*–*–
सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब।।
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू।।
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा।।
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू।।
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।।
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी।।
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।।
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू।।
दो0-एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ।।197।।
–*–*–
जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा।।
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई।।
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी।।
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई।।
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें।।
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ।।
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू।।
दो0-जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।198।।
–*–*–
कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई।।
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई।।
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे।।
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना।।
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही।।
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू।।
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।
दो0-पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि।।199।।
–*–*–
लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने।।
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे।।
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।।
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती।।
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर।।
पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता।।
बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।।
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा।।
दो0-सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान।।200।।
–*–*–
राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ।।
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती।।
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।।
धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।।
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी।।
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ।।
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू।।
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि।।
छं0-बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी।।
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ।।
सो0-अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन।।201।।
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा।।
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी।।
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।।
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं।।
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू।।
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि।।
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा।।
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं।।
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा।।
दो0-प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ।।202।।
–*–*–
कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं।।
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा।।
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू।।
गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए।।
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा।।
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए।।
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा।।
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी।।
दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग।।203।।
–*–*–
झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें।।
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू।।
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए।।
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने।।
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे।।
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू।।
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी।।
दो0-अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।204।।
–*–*–
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।।
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।।
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई।।
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें।।
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी।।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं।।
दो0-तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल।।205।।
–*–*–
प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।।
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा।।
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।।
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।।
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे।।
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।।
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू।।
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई।।
दो0-तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।206।।
–*–*–
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई।।
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।।
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी।।
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू।।
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू।।
दो0-अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।207।।
–*–*–
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना।।
यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।।
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।।
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती।।
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा।।
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें।।
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई।।
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू।।
दो0-तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु।।208।।
–*–*–
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।।
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना।।
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।।
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू।।
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा।।
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।।
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी।।
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं।।
दो0-जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ।।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ।।209।।
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कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा।।
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ।।।।
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ।।
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा।।
दो0-पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन।।210।।
–*–*–
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू।।
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई।।
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।।
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू।।
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू।।
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए।।
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू।।
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही।।
दो0-अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात।।211।।
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एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती।।
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं।।
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला।।
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु।।
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा।।
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ।।
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई।।
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी।।
दो0-करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु।।212।।
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सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू।।
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी।।
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा।।
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए।।
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।।
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए।।
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता।।
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई।।
दो0-राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज।।213।।
–*–*–
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी।।
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई।।
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।।
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना।।
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे।।
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें।।
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं।।
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही।।
दो0-बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह।।214।।
–*–*–
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका।।
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी।।
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना।।
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से।।
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें।।
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।।
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा।।
दो0-संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार।।215।।
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम
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कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा।।
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी।।
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें।।
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू।।
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।।
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी।।
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं।।
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला।।
दो0-किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात।।216।।
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जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।।
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं।।
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता।।
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं।।
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू।।
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई।।
दो0-रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि।।217।।
–*–*–
बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने।।
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया।।
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।
दो0-मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु।।218।।
–*–*–
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा।।
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई।।
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।।
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।।
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।।
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई।।
दो0-राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।219।।
–*–*–
सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी।।
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू।।
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी।।
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं।।
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा।।
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।।
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए।।
दो0-रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज।।220।।
–*–*–
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू।।
रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी।।
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ।।
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई।।
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें।।
तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें।।
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा।।
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा।।
दो0-मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ।।221।।
–*–*–
कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं।।
बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली।।
बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा।।
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा।।
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी।।
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी।।
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू।।
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।
दो0-चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु।।222।।
–*–*–
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।।
जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें।।
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं।।
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन।।
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी।।
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा।।
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा।।
दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।223।।
–*–*–
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा।।
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा।।
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।।
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही।।
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं।।
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।।
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी।।
दो0-तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ।।224।।
–*–*–
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू।।
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू।।
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं।।
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।।
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा।।
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू।।
दो0-भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु।।225।
–*–*–
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें।।
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें।।
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा।।
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए।।
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी।।
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।।
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई।।
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने।।
छं0-सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए।।
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे।।
दो0-सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।226।।
–*–*–
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।।
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी।।
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू।।
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही।।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने।।
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू।।
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई।।
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी।।
दो0-नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान।।227।।
–*–*–
बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।।
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना।।
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई।।
कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी।।
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू।।
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई।।
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।।
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ।।
दो0-ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान।।228।।
–*–*–
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू।।
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ।।
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई।।
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला।।
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी।।
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा।।
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें।।
दो0-छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।।229।।
–*–*–
उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा।।
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा।।
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ।।
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई।।
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू।।
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता।।
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई।।
दो0-अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान।।230।।
–*–*–
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी।।
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा।।
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।।
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने।।
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई।।
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई।।
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा।।
दो0-भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ।।231।।
–*–*–
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई।।
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी।।
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई।।
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना।।
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता।।
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा।।
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी।।
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ।।
दो0-सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु।।232।।
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जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को।।
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा।।
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी।।
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए।।
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा।।
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई।।
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं।।
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ।।
दो0-मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर।।233।।
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जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी।।
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही।।
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना।।
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता।।
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी।।
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ।।
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी।।
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू।।
दो0-लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु।।234।।
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सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने।।
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू।।
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी।।
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी।।
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा।।
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू।।
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।।
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ।।
दो0-जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु।।235।।
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बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे।।
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना।।
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा।।
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा।।
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं।।
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन।।
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा।।
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला।।
दो-राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु।।236।।
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई।।
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला।।
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा।।
नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला।।
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी।।
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई।।
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए।।
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई।।
दो0-जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान।।237।।
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सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी।।
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई।।
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका।।
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं।।
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा।।
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला।।
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।।
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को।।
दो0-पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।238।।
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सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।।
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा।।
राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई।।
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई।।
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा।।
तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू।।
करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी।।
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।।
छं0- तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं।।
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी।।
सो0-गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति।।151।।
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी।।
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी।।
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।।
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई।।
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ।।
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा।।
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई।।
दो0-कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह।।152।।
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तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई।।
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती।।
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू।।
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ।।
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू।।
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा।।
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी।।
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा।।
दो0-भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु।।153।।
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प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू।।
इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी।।
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना।
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी।।
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू।।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू।।
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू।।
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी।।
दो0–प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि।।154।।
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धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू।।
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही।।
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती।।
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई।।
भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा।।
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा।।
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते।।
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।
दो0-राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम।।155।।
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जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा।।
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा।।
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी।।
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा।।
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी।।
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू।।
गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं।।
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी।।
दो0-तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास।।156।।
–*–*–
तेल नाँव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा।।
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू।।
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई।।
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए।।
अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें।।
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना।।
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना।।
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई।।
दो0-एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ।।157।।
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चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके।।
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई।।
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।।
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।।
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला।।
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा।।
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए।।
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी।।
दो0-पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं।।158।।
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हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी।।
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि।।
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई।।
भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा।।
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती।।
सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें।।
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई।।
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।
दो0-सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन।।159।।
–*–*–
तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी।।
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा।।
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी।।
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही।।
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी।।
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई।।
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी।।
दो0-भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु।।160।।
–*–*–
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति।।
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू।।
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।।
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू।।
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा।।
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही।।
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।
दो0-हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ।।161।।
–*–*–
जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ।।
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा।।
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही।।
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ।।
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं।।
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही।।
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई।।
दो0-राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि।।162।।
–*–*–
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई।।
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई।।
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई।।
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा।।
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू।।
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा।।
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी।।
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।।
दो0-मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार।।163।।
–*–*–
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई।।
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी।।
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई।।
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा।।
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।।
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी।।
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु।।
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी।।
दो0-मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि।।
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि।।164।।
–*–*–
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए।।
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई।।
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।।
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे।।
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू।।
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि।।
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता।।
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा।।
दो0-पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165।।
–*–*–
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू।।
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी।।
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा।।
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई।।
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए।।
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें।।
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी।।
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना।।
दो0- कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु।।166।।
–*–*–
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई।।
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं।।
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी।।
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें।।
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें।।
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं।।
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता।।
दो0-जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर।।167।।
–*–*–
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं।।
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी।।
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा।।
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा।।
जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे।।
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई।।
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं।।
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ।।
दो0-मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ।।168।।
–*–*–
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे।।
बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी।।
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू।।
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं।।
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए।।
करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गइ सब राती।।
बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे।।
दो0-तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु।।169।।
–*–*–
नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा।।
गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी।।
चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए।।
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई।।
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही।।
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना।।
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा।।
भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना।।
दो0-सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम।।170।।
–*–*–
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी।।
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।
बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई।।
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे।।
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी।।
भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा।।
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ।।
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी।।
दो0-सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।।171।।
–*–*–
अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू।।
तात बिचारु केहि करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं।।
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना।।
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।।
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।।
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।।
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी।।
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई।।
दो0-सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग।।172।।
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बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू।।
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी।।
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी।।
सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।।
सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।।
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा।।
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा।।
दो0-कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु।।173।।
–*–*–
सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी।।
यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू।।
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा।।
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी।।
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना।।
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई।।
परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी।।
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ।।
दो0-अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।174।।
–*–*–
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू।।
सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू।।
बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका।।
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी।।
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं।।
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं।।
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि।।
सौंपेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ।।
दो0-कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि।।175।।
–*–*–
कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई।।
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी।।
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू।।
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा।।
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई।।
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू।।
गुर के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु।।
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी।।
छं0-सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए।
लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए।।
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की।।
सो0-भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि।।176।।
मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का।।
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा।।
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।।
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू।।
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई।।
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें।।
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू।।
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू।।
दो0-पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु।।177।।
–*–*–
हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई।।
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं।।
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें।।
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू।।
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा।।
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई।।
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू।।
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू।।
दो0-कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज।।178।।
–*–*–
कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू।।
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं।।
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू।।
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा।।
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू।।
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू।।
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे।।
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई।।
दो0-कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर।।179।।
–*–*–
कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे।।
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा।।
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू।।
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू।।
एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका।।
कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं।।
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई।।
दो0-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।।180।।
–*–*–
कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।।
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई।।
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका।।
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही।।
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई।।
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं।।
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू।।
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू।।
दो0-राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि।।181।
–*–*–
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।।
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ।।
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं।।
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी।।
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू।।
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी।।
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा।।
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी।।
दो0-आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ।।182।।
–*–*–
आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा।।
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं।।
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी।।
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा।।
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी।।
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी।।
दो0-जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस।।183।।
–*–*–
भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे।।
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।
दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।184।।
–*–*–
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।।
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के।।
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई।।
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं।।
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू।।
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।
दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।185।।
–*–*–
घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना।।
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू।।
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही।।
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई।।
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।।
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले।।
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा।।
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।
दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान।।186।।
–*–*–
चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी।।
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना।।
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू।।
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे।।
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ।।
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना।।
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना।।
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी।।
दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।187।।
–*–*–
राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी।।
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।188।।
–*–*–
सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा।।
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा।।
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।।
दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु।।189।।
–*–*–
होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा।।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।।
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा।।
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू।।
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी।।
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें।।
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा।।
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू।।
दो0-बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु।।190।।
–*–*–
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ।।
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा।।
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी।।
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं।।
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं।।
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े।।
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई।।
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने।।
दो0-भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि।।191।।
–*–*–
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे।।
जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं।।
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा।।
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।
दो0-गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ।।192।।
–*–*–
लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ।।
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे।।
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने।।
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू।।
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा।।
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।।
दो0-करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ।।193।।
–*–*–
भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती।।
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता।।
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।।
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा।।
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।।
दो0-स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात।।194।।
–*–*–
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।।
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं।।
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।।
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।।
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी।।
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।
दो0-समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ।।195।।
–*–*–
कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें।।
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई।।
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं।।
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा।।
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी।।
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू।।
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई।।
दो0-सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ।।196।।
–*–*–
सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब।।
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू।।
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा।।
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू।।
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।।
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी।।
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।।
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू।।
दो0-एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ।।197।।
–*–*–
जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा।।
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई।।
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी।।
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई।।
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें।।
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ।।
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू।।
दो0-जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।198।।
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कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई।।
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई।।
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे।।
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना।।
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही।।
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू।।
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।
दो0-पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि।।199।।
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लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने।।
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे।।
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।।
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती।।
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर।।
पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता।।
बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।।
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा।।
दो0-सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान।।200।।
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राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ।।
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती।।
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।।
धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।।
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी।।
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ।।
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू।।
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि।।
छं0-बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी।।
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ।।
सो0-अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन।।201।।
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा।।
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी।।
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।।
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं।।
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू।।
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि।।
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा।।
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं।।
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा।।
दो0-प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ।।202।।
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कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं।।
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा।।
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू।।
गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए।।
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा।।
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए।।
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा।।
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी।।
दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग।।203।।
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झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें।।
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू।।
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए।।
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने।।
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे।।
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू।।
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी।।
दो0-अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।204।।
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जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।।
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।।
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई।।
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें।।
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी।।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं।।
दो0-तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल।।205।।
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प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।।
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा।।
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।।
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।।
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे।।
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।।
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू।।
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई।।
दो0-तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।206।।
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यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई।।
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।।
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी।।
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू।।
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू।।
दो0-अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।207।।
–*–*–
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना।।
यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।।
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।।
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती।।
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा।।
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें।।
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई।।
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू।।
दो0-तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु।।208।।
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नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।।
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना।।
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।।
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू।।
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा।।
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।।
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी।।
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं।।
दो0-जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ।।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ।।209।।
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कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा।।
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ।।।।
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ।।
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा।।
दो0-पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन।।210।।
–*–*–
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू।।
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई।।
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।।
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू।।
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू।।
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए।।
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू।।
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही।।
दो0-अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात।।211।।
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एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती।।
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं।।
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला।।
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु।।
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा।।
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ।।
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई।।
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी।।
दो0-करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु।।212।।
–*–*–
सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू।।
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी।।
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा।।
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए।।
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।।
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए।।
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता।।
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई।।
दो0-राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज।।213।।
–*–*–
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी।।
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई।।
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।।
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना।।
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे।।
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें।।
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं।।
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही।।
दो0-बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह।।214।।
–*–*–
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका।।
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी।।
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना।।
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से।।
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें।।
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।।
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा।।
दो0-संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार।।215।।
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम
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कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा।।
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी।।
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें।।
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू।।
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।।
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी।।
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं।।
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला।।
दो0-किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात।।216।।
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जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।।
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं।।
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता।।
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं।।
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू।।
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई।।
दो0-रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि।।217।।
–*–*–
बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने।।
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया।।
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।
दो0-मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु।।218।।
–*–*–
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा।।
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई।।
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।।
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।।
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।।
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई।।
दो0-राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।219।।
–*–*–
सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी।।
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू।।
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी।।
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं।।
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा।।
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।।
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए।।
दो0-रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज।।220।।
–*–*–
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू।।
रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी।।
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ।।
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई।।
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें।।
तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें।।
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा।।
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा।।
दो0-मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ।।221।।
–*–*–
कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं।।
बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली।।
बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा।।
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा।।
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी।।
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी।।
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू।।
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।
दो0-चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु।।222।।
–*–*–
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।।
जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें।।
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं।।
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन।।
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी।।
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा।।
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा।।
दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।223।।
–*–*–
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा।।
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा।।
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।।
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही।।
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं।।
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।।
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी।।
दो0-तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ।।224।।
–*–*–
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू।।
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू।।
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं।।
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।।
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा।।
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू।।
दो0-भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु।।225।
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सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें।।
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें।।
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा।।
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए।।
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी।।
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।।
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई।।
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने।।
छं0-सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए।।
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे।।
दो0-सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।226।।
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बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।।
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी।।
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू।।
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही।।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने।।
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू।।
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई।।
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी।।
दो0-नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान।।227।।
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बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।।
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना।।
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई।।
कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी।।
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू।।
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई।।
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।।
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ।।
दो0-ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान।।228।।
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सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू।।
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ।।
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई।।
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला।।
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी।।
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा।।
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें।।
दो0-छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।।229।।
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उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा।।
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा।।
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ।।
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई।।
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू।।
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता।।
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई।।
दो0-अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान।।230।।
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जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी।।
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा।।
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।।
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने।।
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई।।
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई।।
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा।।
दो0-भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ।।231।।
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तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई।।
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी।।
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई।।
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना।।
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता।।
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा।।
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी।।
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ।।
दो0-सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु।।232।।
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जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को।।
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा।।
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी।।
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए।।
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा।।
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई।।
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं।।
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ।।
दो0-मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर।।233।।
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जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी।।
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही।।
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना।।
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता।।
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी।।
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ।।
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी।।
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू।।
दो0-लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु।।234।।
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सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने।।
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू।।
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी।।
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी।।
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा।।
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू।।
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।।
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ।।
दो0-जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु।।235।।
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बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे।।
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना।।
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा।।
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा।।
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं।।
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन।।
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा।।
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला।।
दो-राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु।।236।।
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई।।
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला।।
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा।।
नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला।।
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी।।
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई।।
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए।।
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई।।
दो0-जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान।।237।।
–*–*–
सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी।।
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई।।
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका।।
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं।।
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा।।
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला।।
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।।
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को।।
दो0-पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।238।।
–*–*–
सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।।
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा।।
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे।।
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें।।
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू।।
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा।।
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत।।
दो0-लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु।।239।।
–*–*–
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन।।
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई।।
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने।।
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा।।
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई।।
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू।।
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा।।
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा।।
दो0-बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।।240।।
–*–*–
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी।।
परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई।।
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई।।
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को।।
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती।।
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।।
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।।
दो0-मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम।।241।।
–*–*–
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई।।
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे।।
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा।।
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए।।
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं।।
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।।
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा।।
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि।।
दो0-नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग।।242।।
–*–*–
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू।।
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला।।
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे।।
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई।।
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू।।
रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।।
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।।
दो0-जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ।।243।।
–*–*–
आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना।।
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी।।
सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू।।
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।।
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा।।
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं।।
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई।।
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी।।
दो0-भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।244।।
–*–*–
गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई।।
गंग गौरि सम सब सनमानीं।।देहिं असीस मुदित मृदु बानी।।
गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका।।
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता।।
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए।।
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू।।
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ।।
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू।।
दो0-महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ।।
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ।।245।।
–*–*–
सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी।।
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता।।
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।।
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं।।
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं।।
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा।।
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा।।
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई।।
दो0-लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।।
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग।।246।।
–*–*–
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं।।
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा।।
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी।।
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी।।
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू।।
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए।।
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा।।
दो0-भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह।।247।।
–*–*–
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी।।
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला।।
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस।।
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते।।
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।।
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ।।
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई।।
दो0-धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम।।248।।
–*–*–
राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू।।
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला।।
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं।।
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि।।
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं।।
झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी।।
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती।।
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।
दो0-सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग।।249।।
–*–*–
कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी।।
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी।।
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा।।
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं।।
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी।।
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा।।
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा।।
दो0-यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु।।250।।
–*–*–
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।।
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई।।
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई।।
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती।।
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं।।
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ।।
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे।।
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे।।
छं0-लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं।।
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा।।
सो0-बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम।।251।।
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती।।
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई।।
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ।।
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं।।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई।।
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई।।
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं।।
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं।।
दो0-निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच।।252।।
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कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली।।
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू।।
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी।।
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ।।
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता।।
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू।।
एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी।।
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई।।
दो0-गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ।।253।।
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बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना।।
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू।।
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।।
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी।।
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु।।
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला।।
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई।।
करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें।।
दो0-राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ।।254।।
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सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू।।
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ।।
सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी।।
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे।।
भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे।।
जनमु हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता।।
दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना।।
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी।।
दो0-बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु।।255।।
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तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं।।
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता।।
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई।।
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता।।
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा।।
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी।।
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे।।
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू।।
दो0-अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान।।256।।
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भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू।।
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी।।
गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा।।
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई।।
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए।।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु।।
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी।।
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना।।
दो0-सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ।।257।।
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आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ।।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ।।
सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें।।
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई।।
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ।।
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा।।
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी।।
मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।
दो0-भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।258।।
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गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी।।
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी।।
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी।।
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू।।
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।
दो0-तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात।।259।।
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सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई।।
लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू।।
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही।।
दो0-महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।260।।
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बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।
दो0-साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।261।।
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भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ।।
बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।
दो0-तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।262।।
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सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी।।
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू।।
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी।।
बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू।।
तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी।।
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे।।
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई।।
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई।।
दो0-मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।263।।
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कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।।
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ।।
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।।
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें।।
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू।।
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा।।
दो0-मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।264।।
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सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू।।
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं।।
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।
सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा।।
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा।।
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा।।
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि।।
दो0-सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु।।265।।
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सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई।।
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई।।
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ।।
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं।।
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू।।
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना।।
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका।।
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा।।
दो0-कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ।।266।।
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कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी।।
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला।।
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें।।
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई।।
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला।।
यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई।।
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं।।
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।
दो0-जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच।।267।।
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लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू।।
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई।।
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची।।
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई।।
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका।।
यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु।।
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी।।
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना।।
दो0-सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ।।268।।
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नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई।।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई।।
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु।।
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू।।
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई।।
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू।।
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा।।
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ।।
दो0-प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।269।।
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भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।
असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी।।
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची।।
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए।।
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे।।
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता।।
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा।।
बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं।।
दो0-नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ।।270।।
–*–*–
कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा।।
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू।।
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि।।
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू।।
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू।।
समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ।।
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी।।
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ।।
दो0-गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति।।271।।
–*–*–
दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी।।
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति।।
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई।।
घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे।।
दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला।।
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा।।
खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा।।
साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे।।
दो0-सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु।।272।।
–*–*–
गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई।।
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी।।
एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ।।
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी।।
रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी।।
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी।।
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा।।
एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू।।
दो0-गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ।।273।।
–*–*–
सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी।।
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन।।
ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी।।
सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं।।
लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी।।
सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ।।
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे।।
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे।।
दो0-प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु।।274।।
–*–*–
भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा।।
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं।।
राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू।।
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही।।
आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती।।
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे।।
लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन।।
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि।।
दो0-आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु।।275।।
–*–*–
बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे।।
सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा।।
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा।।
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा।।
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे।।
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई।।
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा।।
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही।।
छं0-अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा।।
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की।।
सो0-किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन।।276।।
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा।।
तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई।।
बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने।।
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू।।
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू।।
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए।।
सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी।।
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू।।
दो0-दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात।।277।।
–*–*–
जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी।।
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा।।
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका।।
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं।।
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ।।
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई।।
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू।।
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना।।
दो0-तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार।।278।।
–*–*–
कामद मे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा।।
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा।।
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला।।
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू।।
जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई।।
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई।।
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे।।
दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना।।
दो0-सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार।।279।।
–*–*–
एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी।।
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं।।
सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू।।
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही।।
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही।।
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला।।
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल।।
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता।।
दो0-एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु।।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु।।280।।
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एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं।।
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं।।
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू।।
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी।।
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा।।
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन।।
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति।।
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी।।
दो0-सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।।281।।
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सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा।।
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी।।
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू।।
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता।।
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें।।
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी।।
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी।।
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी।।
दो0-लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु।।282।।
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ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी।।
राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ।।
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई।।
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे।।
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा।।
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा।।
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी।।
दो0-कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि।।283।।
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रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई।।
रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन।।
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी।।
गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं।।
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी।।
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि।।
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ।।
देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती।।
दो0-बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय।।284।।
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लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता।।
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी।।
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं।।
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी।।
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै।।
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू।।
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल।।
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा।।
दो0-अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ।।285।।
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प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही।।
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी।।
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई।।
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की।।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू।।
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा।।
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु।।
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की।।
दो0-सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि।।286।।
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तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी।।
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी।।
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे।।
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी।।
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई।।
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं।।
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ।।
दो0-बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि।।287।।
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सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू।।
मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन।।
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि।।
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू।।
सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही।।
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद।।
भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती।।
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू।।
दो0-निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि।।288।।
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अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी।।
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी।।
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ।।
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं।।
देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी।।
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की।।
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे।।
साधन सिद्ध राम पग नेहू।।मोहि लखि परत भरत मत एहू।।
दो0-भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ।।289।।
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राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती।।
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे।।
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई।।
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी।।
सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू।।
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा।।
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ।।
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा।।
दो0-प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम।।290।।
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सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ।।
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम पेम परधानू।।
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं।।
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें।।
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ।।
करि प्रनाम तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए।।
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए।।
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई।
दो0-ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल।।291।।
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सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे।।
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाही।।
रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना।।
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई।।
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी।।
समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा।।
भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे।।
तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ।।
दो0-राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु।।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु।।292।।
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सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी।।
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू।।
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू।।
सिसु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी।।
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर।।
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता।।
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना।।
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू।।
दो0-राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि।।293।।
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भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ।।
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे।।
ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी।।
भूप भरत मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू।।
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा।।
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी।।
राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे।।
सब कोउ राम पेममय पेखा। भउ अलेख सोच बस लेखा।।
दो0-रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु।।294।।
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सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही।।
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया।।
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी।।
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू।।
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी।।
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी।।
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू।।
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका।।
दो0-सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु।।
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु।।295।।
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करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू।।
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा।।
समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा।।
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई।।
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू।।
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी।।
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू।।
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई।।
दो0-राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत।।296।।
–*–*–
सभा सकुच बस भरत निहारी। रामबंधु धरि धीरजु भारी।।
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा।।
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी।।
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला।।
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे।।
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा।।
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई।।
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली।।
दो0-निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु।।297।।
–*–*–
प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अतंरजामी।।
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू।।
समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी।।
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई। मोहि समान मैं साइँ दोहाई।।
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली।।
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू।।
राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं।।
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई।।
दो0-कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर।।298।।
–*–*–
राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई।।
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी।।
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए।।
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने।।
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी।।
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें।।
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी।।
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना।।
दो0-यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर।।299।।
–*–*–
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ।।
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा।।
देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।।
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू।।
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई।।
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं।।
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई।।
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी।।
दो0-सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि।।300।।
–*–*–
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई।।
सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की।।
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई।।
अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।।
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी।।
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई।।
कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी।।
भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ।।
छं0-रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी।।
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से।।
सो0-देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत।।301।।
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू।।
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती।।
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला।।
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे।।
भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं।।
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी।।
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं।।
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू।।
दो0-भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ।।302।।
–*–*–
कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे।।
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री।।
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से।।
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई।।
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू।।
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी।।
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी।।
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई।।
दो0-भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि।।303।।
–*–*–
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ।।
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को।।
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को।।
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की।।
धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर।।
देसु काल लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू।।
बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से।।
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना।।
दो0-करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात।।304।।
–*–*–
जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती।।
समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की।।
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू।।
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा।।
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी।।
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू।।
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू।।
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा।।
दो0-राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम।।305।।
–*–*–
सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा।।
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू।।
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू।।
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी।।
सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारु सुखारी।।
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई।।
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा।।
होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए।।
दो0-सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ।।306।।
–*–*–
सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी।।
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी।।
भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू।।
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू।।
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी।।
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को।।
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई।।
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई।।
दो0-देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ।।307।।
–*–*–
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं।।
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई।।
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन।।
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी।।
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू।।
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता।।
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं।।
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा।।
दो0-भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल।।308।।
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धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआई।
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू।।
भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू।।
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन।।
मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे।।
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू।।
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी।।
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई।।
दो0-अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप।।309।।
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भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई।।
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू।।
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा।।
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू।।
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा।।
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू।।
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा।।
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी।।
दो0-कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ।।310।।
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कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती।।
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई।।
सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें।।
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं।।
कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं।।
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे।।
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं।।
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी।।
दो0-सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात।।311।।
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एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं।।
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा।।
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी।।
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ।।
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा।।
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई।।
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा।।
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई।।
दो0-देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ।।312।।
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भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू।।
भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं।।
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी।।
सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची।।
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी।।
करि दंडवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी।।
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू।।
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई।।
दो0-जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल।।313।।
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पुरजन परिजन प्रजा गोसाई। सब सुचि सरस सनेहँ सगाई।।
राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू।।
स्वामि सुजानु जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की।।
प्रनतपालु पालिहि सब काहू। देउ दुहू दिसि ओर निबाहू।।
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो।।
आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू।।
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखइअ अनुगामी।।
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी। खीर नीर बिबरन गति हंसी।।
दो0-दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन।।314।।
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तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की।।
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू।।
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु।।
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई। लोक बेद भल भूप भलाई।।
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें।।
अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई।।
देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू।।
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी।।
दो0-मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक।।315।।
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राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई।।
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती।।
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू।।
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं।।
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के।।
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जुन जीव जतन के।।
कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के।।
भरत मुदित अवलंब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें।।
दो0-मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ।।316।।
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सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की।।
नतरु लखन सिय सम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा।।
रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु कहि न परत सो।।
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरजु त्यागा।।
बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी।।
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से।।
जे बिरंचि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए।।
दो0-तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार।।317।।
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जहाँ जनक गुर मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी।।
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू।।
सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी।।
भेंटि भरत रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए।।
सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई।।
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा।।
प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई।।
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी।।
दो0-लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि।।318।।
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सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई।।
देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ।।
पुर पगु धारिअ देइ असीसा। कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा।।
मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने।।
सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आसिष पाई।।
कौसिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली।।
जथा जोगु करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा।।
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे।।
दो0-भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि।।319।।
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परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता।।
करि प्रनामु भेंटी सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू।।
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई। रही सीय दुहु प्रीति समाई।।
रघुपति पटु पालकीं मगाईं। करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाई।।
बार बार हिलि मिलि दुहु भाई। सम सनेहँ जननी पहुँचाई।।
साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना।।
हृदयँ रामु सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता।।
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें। चले जाहिं परबस मन मारें।।
दो0-गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत।।320।।
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बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू।।
कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी।।
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं।।
भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी।।
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी।।
तेहि अवसर खग मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना।।
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की।।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो।।
दो0-सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर।।321।।
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मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू।।
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं।।
जमुना उतरि पार सबु भयऊ। सो बासरु बिनु भोजन गयऊ।।
उतरि देवसरि दूसर बासू। रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू।।
सई उतरि गोमतीं नहाए। चौथें दिवस अवधपुर आए।
जनकु रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी।।
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू। तेरहुति चले साजि सबु साजू।।
नगर नारि नर गुर सिख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी।।
दो0-राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास।
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस।।322।।
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सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे।।
पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई।।
भूसुर बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बय बिनय निहोरे।।
ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू।।
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए। समाधानु करि सुबस बसाए।।
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी। करि दंडवत कहत कर जोरी।।
आयसु होइ त रहौं सनेमा। बोले मुनि तन पुलकि सपेमा।।
समुझव कहब करब तुम्ह जोई। धरम सारु जग होइहि सोई।।
दो0-सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि।।323।।
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राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई।।
नंदिगावँ करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा।।
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी।।
असन बसन बासन ब्रत नेमा। करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा।।
भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे तिन तूरी।।
अवध राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई।।
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा।।
रमा बिलासु राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी।।
दो0-राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति।।324।।
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देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई।।
नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना।।
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे।।
सम दम संजम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा।।
ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी।।
राम पेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा।।
भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती।।
बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं। सेस गनेस गिरा गमु नाहीं।।
दो0-नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति।।325।।
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पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू।।
लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं।।
दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू।।
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दसा मुनिराज लजाहीं।।
परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू।।
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू।।
पाप पुंज कुंजर मृगराजू। समन सकल संताप समाजू।
जन रंजन भंजन भव भारू। राम सनेह सुधाकर सारू।।
छं0-सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को।।
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को।।
सो0-भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।326।।
मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
द्वितीयः सोपानः समाप्तः।
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(अयोध्याकाण्ड समाप्त)
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देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे।।
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें।।
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू।।
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा।।
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत।।
दो0-लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु।।239।।
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सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन।।
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई।।
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने।।
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा।।
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई।।
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू।।
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा।।
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा।।
दो0-बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।।240।।
–*–*–
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी।।
परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई।।
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई।।
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को।।
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती।।
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।।
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।।
दो0-मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम।।241।।
–*–*–
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई।।
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे।।
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा।।
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए।।
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं।।
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।।
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा।।
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि।।
दो0-नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग।।242।।
–*–*–
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू।।
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला।।
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे।।
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई।।
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू।।
रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।।
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।।
दो0-जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ।।243।।
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आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना।।
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी।।
सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू।।
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।।
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा।।
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं।।
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई।।
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी।।
दो0-भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।244।।
–*–*–
गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई।।
गंग गौरि सम सब सनमानीं।।देहिं असीस मुदित मृदु बानी।।
गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका।।
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता।।
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए।।
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू।।
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ।।
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू।।
दो0-महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ।।
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ।।245।।
–*–*–
सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी।।
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता।।
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।।
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं।।
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं।।
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा।।
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा।।
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई।।
दो0-लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।।
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग।।246।।
–*–*–
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं।।
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा।।
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी।।
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी।।
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू।।
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए।।
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा।।
दो0-भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह।।247।।
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करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी।।
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला।।
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस।।
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते।।
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।।
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ।।
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई।।
दो0-धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम।।248।।
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राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू।।
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला।।
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं।।
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि।।
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं।।
झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी।।
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती।।
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।
दो0-सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग।।249।।
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कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी।।
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी।।
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा।।
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं।।
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी।।
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा।।
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा।।
दो0-यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु।।250।।
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तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।।
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई।।
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई।।
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती।।
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं।।
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ।।
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे।।
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे।।
छं0-लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं।।
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा।।
सो0-बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम।।251।।
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती।।
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई।।
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ।।
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं।।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई।।
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई।।
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं।।
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं।।
दो0-निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच।।252।।
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कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली।।
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू।।
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी।।
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ।।
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता।।
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू।।
एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी।।
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई।।
दो0-गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ।।253।।
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बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना।।
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू।।
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।।
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी।।
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु।।
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला।।
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई।।
करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें।।
दो0-राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ।।254।।
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सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू।।
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ।।
सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी।।
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे।।
भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे।।
जनमु हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता।।
दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना।।
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी।।
दो0-बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु।।255।।
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तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं।।
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता।।
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई।।
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता।।
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा।।
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी।।
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे।।
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू।।
दो0-अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान।।256।।
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भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू।।
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी।।
गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा।।
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई।।
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए।।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु।।
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी।।
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना।।
दो0-सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ।।257।।
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आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ।।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ।।
सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें।।
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई।।
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ।।
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा।।
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी।।
मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।
दो0-भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।258।।
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गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी।।
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी।।
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी।।
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू।।
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।
दो0-तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात।।259।।
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सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई।।
लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू।।
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही।।
दो0-महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।260।।
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बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।
दो0-साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।261।।
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भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ।।
बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।
दो0-तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।262।।
–*–*–
सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी।।
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू।।
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी।।
बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू।।
तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी।।
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे।।
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई।।
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई।।
दो0-मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।263।।
–*–*–
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।।
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ।।
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।।
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें।।
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू।।
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा।।
दो0-मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।264।।
–*–*–
सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू।।
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं।।
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।
सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा।।
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा।।
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा।।
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि।।
दो0-सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु।।265।।
–*–*–
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई।।
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई।।
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ।।
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं।।
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू।।
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना।।
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका।।
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा।।
दो0-कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ।।266।।
–*–*–
कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी।।
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला।।
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें।।
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई।।
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला।।
यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई।।
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं।।
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।
दो0-जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच।।267।।
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लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू।।
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई।।
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची।।
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई।।
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका।।
यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु।।
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी।।
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना।।
दो0-सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ।।268।।
–*–*–
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई।।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई।।
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु।।
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू।।
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई।।
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू।।
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा।।
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ।।
दो0-प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।269।।
–*–*–
भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।
असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी।।
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची।।
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए।।
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे।।
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता।।
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा।।
बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं।।
दो0-नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ।।270।।
–*–*–
कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा।।
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू।।
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि।।
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू।।
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू।।
समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ।।
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी।।
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ।।
दो0-गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति।।271।।
–*–*–
दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी।।
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति।।
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई।।
घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे।।
दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला।।
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा।।
खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा।।
साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे।।
दो0-सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु।।272।।
–*–*–
गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई।।
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी।।
एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ।।
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी।।
रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी।।
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी।।
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा।।
एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू।।
दो0-गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ।।273।।
–*–*–
सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी।।
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन।।
ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी।।
सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं।।
लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी।।
सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ।।
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे।।
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे।।
दो0-प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु।।274।।
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भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा।।
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं।।
राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू।।
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही।।
आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती।।
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे।।
लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन।।
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि।।
दो0-आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु।।275।।
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बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे।।
सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा।।
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा।।
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा।।
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे।।
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई।।
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा।।
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही।।
छं0-अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा।।
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की।।
सो0-किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन।।276।।
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा।।
तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई।।
बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने।।
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू।।
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू।।
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए।।
सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी।।
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू।।
दो0-दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात।।277।।
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जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी।।
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा।।
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका।।
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं।।
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ।।
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई।।
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू।।
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना।।
दो0-तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार।।278।।
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कामद मे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा।।
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा।।
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला।।
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू।।
जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई।।
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई।।
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे।।
दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना।।
दो0-सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार।।279।।
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एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी।।
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं।।
सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू।।
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही।।
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही।।
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला।।
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल।।
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता।।
दो0-एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु।।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु।।280।।
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एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं।।
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं।।
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू।।
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी।।
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा।।
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन।।
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति।।
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी।।
दो0-सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।।281।।
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सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा।।
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी।।
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू।।
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता।।
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें।।
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी।।
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी।।
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी।।
दो0-लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु।।282।।
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ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी।।
राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ।।
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई।।
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे।।
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा।।
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा।।
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी।।
दो0-कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि।।283।।
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रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई।।
रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन।।
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी।।
गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं।।
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी।।
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि।।
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ।।
देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती।।
दो0-बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय।।284।।
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लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता।।
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी।।
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं।।
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी।।
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै।।
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू।।
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल।।
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा।।
दो0-अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ।।285।।
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प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही।।
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी।।
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई।।
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की।।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू।।
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा।।
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु।।
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की।।
दो0-सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि।।286।।
–*–*–
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी।।
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी।।
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे।।
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी।।
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई।।
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं।।
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ।।
दो0-बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि।।287।।
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सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू।।
मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन।।
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि।।
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू।।
सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही।।
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद।।
भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती।।
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू।।
दो0-निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि।।288।।
–*–*–
अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी।।
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी।।
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ।।
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं।।
देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी।।
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की।।
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे।।
साधन सिद्ध राम पग नेहू।।मोहि लखि परत भरत मत एहू।।
दो0-भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ।।289।।
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राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती।।
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे।।
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई।।
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी।।
सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू।।
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा।।
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ।।
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा।।
दो0-प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम।।290।।
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सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ।।
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम पेम परधानू।।
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं।।
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें।।
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ।।
करि प्रनाम तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए।।
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए।।
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई।
दो0-ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल।।291।।
–*–*–
सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे।।
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाही।।
रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना।।
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई।।
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी।।
समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा।।
भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे।।
तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ।।
दो0-राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु।।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु।।292।।
–*–*–
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी।।
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू।।
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू।।
सिसु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी।।
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर।।
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता।।
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना।।
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू।।
दो0-राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि।।293।।
–*–*–
भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ।।
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे।।
ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी।।
भूप भरत मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू।।
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा।।
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी।।
राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे।।
सब कोउ राम पेममय पेखा। भउ अलेख सोच बस लेखा।।
दो0-रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु।।294।।
–*–*–
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही।।
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया।।
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी।।
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू।।
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी।।
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी।।
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू।।
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका।।
दो0-सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु।।
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु।।295।।
–*–*–
करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू।।
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा।।
समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा।।
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई।।
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू।।
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी।।
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू।।
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई।।
दो0-राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत।।296।।
–*–*–
सभा सकुच बस भरत निहारी। रामबंधु धरि धीरजु भारी।।
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा।।
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी।।
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला।।
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे।।
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा।।
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई।।
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली।।
दो0-निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु।।297।।
–*–*–
प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अतंरजामी।।
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू।।
समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी।।
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई। मोहि समान मैं साइँ दोहाई।।
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली।।
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू।।
राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं।।
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई।।
दो0-कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर।।298।।
–*–*–
राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई।।
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी।।
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए।।
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने।।
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी।।
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें।।
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी।।
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना।।
दो0-यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर।।299।।
–*–*–
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ।।
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा।।
देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।।
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू।।
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई।।
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं।।
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई।।
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी।।
दो0-सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि।।300।।
–*–*–
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई।।
सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की।।
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई।।
अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।।
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी।।
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई।।
कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी।।
भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ।।
छं0-रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी।।
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से।।
सो0-देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत।।301।।
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू।।
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती।।
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला।।
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे।।
भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं।।
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी।।
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं।।
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू।।
दो0-भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ।।302।।
–*–*–
कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे।।
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री।।
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से।।
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई।।
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू।।
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी।।
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी।।
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई।।
दो0-भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि।।303।।
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भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ।।
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को।।
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को।।
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की।।
धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर।।
देसु काल लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू।।
बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से।।
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना।।
दो0-करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात।।304।।
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जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती।।
समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की।।
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू।।
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा।।
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी।।
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू।।
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू।।
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा।।
दो0-राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम।।305।।
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सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा।।
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू।।
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू।।
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी।।
सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारु सुखारी।।
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई।।
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा।।
होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए।।
दो0-सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ।।306।।
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सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी।।
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी।।
भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू।।
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू।।
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी।।
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को।।
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई।।
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई।।
दो0-देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ।।307।।
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एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं।।
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई।।
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन।।
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी।।
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू।।
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता।।
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं।।
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा।।
दो0-भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल।।308।।
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धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआई।
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू।।
भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू।।
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन।।
मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे।।
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू।।
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी।।
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई।।
दो0-अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप।।309।।
–*–*–
भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई।।
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू।।
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा।।
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू।।
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा।।
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू।।
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा।।
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी।।
दो0-कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ।।310।।
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कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती।।
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई।।
सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें।।
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं।।
कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं।।
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे।।
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं।।
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी।।
दो0-सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात।।311।।
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एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं।।
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा।।
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी।।
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ।।
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा।।
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई।।
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा।।
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई।।
दो0-देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ।।312।।
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भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू।।
भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं।।
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी।।
सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची।।
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी।।
करि दंडवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी।।
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू।।
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई।।
दो0-जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल।।313।।
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पुरजन परिजन प्रजा गोसाई। सब सुचि सरस सनेहँ सगाई।।
राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू।।
स्वामि सुजानु जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की।।
प्रनतपालु पालिहि सब काहू। देउ दुहू दिसि ओर निबाहू।।
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो।।
आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू।।
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखइअ अनुगामी।।
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी। खीर नीर बिबरन गति हंसी।।
दो0-दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन।।314।।
–*–*–
तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की।।
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू।।
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु।।
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई। लोक बेद भल भूप भलाई।।
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें।।
अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई।।
देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू।।
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी।।
दो0-मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक।।315।।
–*–*–
राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई।।
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती।।
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू।।
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं।।
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के।।
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जुन जीव जतन के।।
कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के।।
भरत मुदित अवलंब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें।।
दो0-मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ।।316।।
–*–*–
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की।।
नतरु लखन सिय सम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा।।
रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु कहि न परत सो।।
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरजु त्यागा।।
बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी।।
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से।।
जे बिरंचि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए।।
दो0-तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार।।317।।
–*–*–
जहाँ जनक गुर मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी।।
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू।।
सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी।।
भेंटि भरत रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए।।
सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई।।
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा।।
प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई।।
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी।।
दो0-लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि।।318।।
–*–*–
सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई।।
देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ।।
पुर पगु धारिअ देइ असीसा। कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा।।
मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने।।
सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आसिष पाई।।
कौसिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली।।
जथा जोगु करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा।।
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे।।
दो0-भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि।।319।।
–*–*–
परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता।।
करि प्रनामु भेंटी सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू।।
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई। रही सीय दुहु प्रीति समाई।।
रघुपति पटु पालकीं मगाईं। करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाई।।
बार बार हिलि मिलि दुहु भाई। सम सनेहँ जननी पहुँचाई।।
साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना।।
हृदयँ रामु सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता।।
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें। चले जाहिं परबस मन मारें।।
दो0-गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत।।320।।
–*–*–
बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू।।
कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी।।
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं।।
भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी।।
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी।।
तेहि अवसर खग मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना।।
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की।।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो।।
दो0-सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर।।321।।
–*–*–
मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू।।
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं।।
जमुना उतरि पार सबु भयऊ। सो बासरु बिनु भोजन गयऊ।।
उतरि देवसरि दूसर बासू। रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू।।
सई उतरि गोमतीं नहाए। चौथें दिवस अवधपुर आए।
जनकु रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी।।
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू। तेरहुति चले साजि सबु साजू।।
नगर नारि नर गुर सिख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी।।
दो0-राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास।
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस।।322।।
–*–*–
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे।।
पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई।।
भूसुर बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बय बिनय निहोरे।।
ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू।।
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए। समाधानु करि सुबस बसाए।।
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी। करि दंडवत कहत कर जोरी।।
आयसु होइ त रहौं सनेमा। बोले मुनि तन पुलकि सपेमा।।
समुझव कहब करब तुम्ह जोई। धरम सारु जग होइहि सोई।।
दो0-सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि।।323।।
–*–*–
राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई।।
नंदिगावँ करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा।।
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी।।
असन बसन बासन ब्रत नेमा। करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा।।
भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे तिन तूरी।।
अवध राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई।।
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा।।
रमा बिलासु राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी।।
दो0-राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति।।324।।
–*–*–
देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई।।
नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना।।
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे।।
सम दम संजम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा।।
ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी।।
राम पेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा।।
भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती।।
बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं। सेस गनेस गिरा गमु नाहीं।।
दो0-नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति।।325।।
–*–*–
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू।।
लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं।।
दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू।।
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दसा मुनिराज लजाहीं।।
परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू।।
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू।।
पाप पुंज कुंजर मृगराजू। समन सकल संताप समाजू।
जन रंजन भंजन भव भारू। राम सनेह सुधाकर सारू।।
छं0-सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को।।
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को।।
सो0-भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।326।।
मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
द्वितीयः सोपानः समाप्तः।
————
(अयोध्याकाण्ड समाप्त)
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