जन्माष्टमी का चंदा उघाई



दिल्ली में जहाँ में रहता हूं, वहाँ के श्री राम मंदिर में , जन्माष्टमी का चंदा इकठ्ठा किया जाता है. चूँकि जन्माष्टमी के दिन बहुत लाइटें लगती हैं , झाकियां सजती हैं,  बहुत सारा प्रशाद वितरित होता है .


कभी कभी में भी उगाहने वालों के साथ होता हूं.


पहले तो यह विचार हुआ कि , देख भगवान में तेरे लिए दरवाजे दरवाजे जा रहा हूं . जरा नोट रखना, कि मैं तुम्हारे लिए , लोगों की , बातें भी सुन रहा हूं. कुछ सम्मान भी करते हैं, तो कुछ व्यंग भी करते हैं.
ध्यान रखना , जब मेरे बारी आये तब .




पर किसी अनुभवी सत्संगी से जब ये विचार रखा तो उसने बताया, कि शुक्र करो , कि भगवान ने तुम्हे इस बड़े काम के लिए चुना है , वर्ना तुम तो आज तक अपने पेट पालने के लिए ही धनवानों के दरवाजों पर गए हो .


शुक्र करो कि चंदे के लिए जाने की वजह से , तुम्हे लोग अच्छा आदमी समझते हैं , चाहे वो व्यंग भी करें.  जगह जगह तुम्हे चाय , मिठाई, आदर  मिलता  है ,  ओर तुमको ये अभिमान मिला , कि तुमने कुछ भगवान के लिए किया , जबकि तुम इस लायक कदापि नहीं थे .


तब में जमीन पर आया , जो जरा सी बात से उड़ने लगा था.


मेरे जैसे आदमी , जरा सा , कुछ मिलते ही आसमान में उड़ने लगते हैं. इश्वर को यह पता है , इसलिए वह मेरे भले के लिए , मुझे उतना ही देता है , जिससे मेरा दिमाग खराब न हो जाये.


कितने कृपालु हैं भगवान ,





कुछ लोग हमें देख कर खुश होते थे, कहते थे , हम तो इन्तजार कर रहे थे, कि आप कब आयेंगे,


कुछ लोगों ने कहा ये सब बेकार है , पैसे की बर्बादी है , इस पैसे को गरीबों में बाँट देना चाहिए.
(पर एक गुप्त बात है कि उनके बच्चों की शादी में , ५०-५० लाख के पंडाल , ओर बाकी के खर्चे का तो कोई ठिकाना नहीं था)


पर अधिकतर मन से,  बे मन से , थोड़ा , आधिक सहयोग दे रहे थे, जैन , सिख , ईसाई , मुस्लिम , सब , चाहे मन से , चाहे लिहाज़ में. कोई ५० भी हील- हुज्ज़त से दे रहा है , कोई ५००० भी खुशी से .


मुझे भी मंदिर कमिटी कि बहुत बातें पसंद नहीं , पर इस घर घर चंदे से एक बात मुझे अच्छी लगी कि , इस शहर में जहाँ कोई अपने पडोसी को भी नहीं जानता , वहाँ , कम से कम लोगों को ये लगा, कि एक समाज है , जिससे हम जुड़े हैं.




नन्द के आनंद भयो , जय कन्हैया लाल की ,


हाथी दीन्हे   घोड़ा दीन्हे   ओर दीन्ही पालकी

      

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